मैं नहीं कर पाती तुम्हे प्रेम ............!
जब भी चाहती हूँ ,भूल कर सब कुछ
तुम्हे ,सिर्फ तुम्हे याद रख सकूँ
मेरे आस पास की दीवारों में
खुल जाती है कई खिड़कियाँ...... ....
और उनसे छनकर आते हैं अन्दर
ढेर सारी नीली रोशनियों के टुकड़े.....
उन टुकड़ों में मुझे
सिर्फ तुम्हारा चेहरा ही नहीं दिखता .....
दिखता है अपना वजूद भी
जो उन टुकड़ों के साथ ही
अलग -अलग तैर रहा होता है
विभक्त ..........!
और मैं गुम हो जाती हूँ
इन सबके समीकरण जोड़ने में ही .....
तुम्हे प्रेम करते हुए
जब भूल जाना चाहिए मुझे खुद को
मुझे और भी शिद्दत से याद आता है
मेरा होना ............!!
तुम्हे प्रेम करते हुए मैं भूल जाना चाहती हूँ
शरीर की भाषाएँ और सुनना चाहती हूँ
अगर होता है कुछ इसके परे भी........!!
लेकिन हर बार मैं रह जाती हूँ मात्र एक शरीर
जो नहीं पहुँच पाता तुम्हारी आत्मा तक .......
प्रेम जोड़ -तोड़ , गुना , भाग के
गणितीय सूत्रों से परे की है चीज़ कोई
खुद को यह याद दिला कर ........
कोशिश करती हूँ कि डूब जाऊं तुम्हारे प्रेम में
लेकिन पाती हूँ ,
पानी तो इतना गहरा ही नहीं .......
जो मुझे डुबो सके ............!!
उलझ जाती हूँ ,फिर इसी जद्दो-जेहद में .......
और नहीं कर पाती मैं तुम्हें प्रेम
शायद मैं कर ही नहीं सकती.....
एक निर्दोष प्रेम ..........!!